Thursday, 8 September 2011

मनुष्य संसार के संसाधनों में सुख खोज रहा है.

संसार का प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है. आज का मनुष्य संसार के संसाधनों में सुख खोज रहा है. सुख की प्रत्याशा में ही वह कर्म करता है, वह आशा करता है की उसे सुख अवश्य मिलेगा, पर ऐसा होता नहीं है, निराशा और सुख ही हाथ लगते है
सो परत्र दुःख पावै सिर धुनी धुनी पछिताई
एक संस्कृत सूक्ति में सुख और दुःख इस प्रकार परिभाषित किया गया है-
सर्वं परवशं दुखम सर्वमात्म्वषम सुखं 
अर्थात दुसरे के बंधन में अधीन रहना दुःख है, जबकि आत्माधीन या स्वतंत्र रहना सुख है. आज के मोहासक्त मानव ने सुख दुःख के अर्थ ही बदल लिए है. आज का मानव इच्छापूर्ती होने को सुख और पूर्ती न होने को दुःख मान बैठा है. हमारे धर्मग्रंथो में सुख के दो रूप बताये गए है-लौकिक सुख और अलौकिक सुख. लौकिक सुख आशय उस सुख से है जो संसार की किसी बस्तु, व्यक्ति अथवा परिस्थिति के संयोग से मिलता है


दुसरे शब्दों में आपको अपनी इक्षित वस्तुए, मकान, दूकान, सोना-चांदी मिले, आपको पति-पत्नी, संसार, भी-बहन आदि परिवारजन मिले, आपको अनुकूल परिस्थिति एवं सम्मान मिले-इन सबके मिलने से आपको जो आराम महसूस होता है, उसे लौकिक सुख कहते है. लौकिक सुख क्षणिक होते है. इन सुखो का अभाव तो संसारी प्राणी के लिए दुखकार होता ही है, इन सुखो की प्राप्ति भी दुखकार ही होती है. जैसे एक व्यक्ति के पास मकान नहीं है, वह दूसरो के मकानों को देखकर स्वयं मकान बनवाने के लिए कठिन परिश्रम करता है.


कर्माकर्म का विचार किये बिना वह धन कमाता है, मकान बनवा लेता है, किन्तु बाद में यह मकान उसे स्थाई सुख नहीं देता है. उसकी सुरक्षा की चिंता, पुत्रो के विवाद आदि विषय उसे दुःख देने लगते है. ईसी प्रकार पुत्र प्राप्ति का सुख भी दुखदायी हो जाता है. अर्थात लौकिक  सुख कष्टप्रद एवं दुख देनेवाले ही होते है. 


आजके मानव में लौकिक सुक्खो को जीवन का आधार मान लिया है. संत कवी तुलसी ने सांसारिक सुखो को दाद की खुजली के सामान बताया है -
ममता दादू कंडू इरषाई
हरष विषाद गरह बहुताई

लौकिक सुखजनित दुखनिव्रत्ति का एक ही उपाय है की इन सुखो में आसक्ति न रखे . इन सुखो को भगवत क्रपा  से प्राप्त हुआ माने तथा कर्तापन का अभिमान भुला दे. ऐसा मान लेने पर व्यक्ति इन सुखो के नष्ट हो जाने पर  दुःख का अनुभव नहीं होगा.


अलौकिक सुख, वह सुख है, जो संसार पर आधारित नहीं है. वह संसार की किसी वास्तु, व्यक्ति अथबा परिस्थिति से नहीं मिलता. अलौकिक सुख की विचित्रता यह है की वह मिलने के बाद निरंतर बढ़ता रहता है. उसके बढ़ने की कोई सीमा नहीं है. अलौकिक सुखो को तीन नामो से जाना जा सकता है -  भगवद्भक्ति, परम शांति और जीवन मुक्ति. इसी सुख का नाम है - परमानंद, निजानद, स्थायी प्रसन्नता, अलौकिक आनंद. 


कबीरदास के शब्दों में - 
मन मगन भया तब क्या बोले
हंसा पाया मान सरोवर, डाबर डाबर क्या डोले.

अलौकिक सुख शारीरिक एवं मानसिक बल, बुद्धि, योग्यता, पद, अधिकार, धन-संपत्ति, सम्मान आदि से नहीं मिलेगा. अलौकिक सुख की प्राप्ति सरल उपाय है - सत्संग एवं ईश्वर में विशवास. अलौकिक सुख भगवत कृपा  से प्राप्त होता है. उस अनंत करुडामय परमात्मा के दिव्य चरित्रों में श्रद्धा-विशवास के साथ उनके श्रवण, चिंतन  एवं मनम से व्यक्ति को एक अपूर्व आनंद का अनुभव होने लगता है. इसी आनंद का नाम है-अलौकिक सुख. 


मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम एवं उनके नाम को आनद सिन्धु   एवं सुखो का धाम कहा गया है. नामकरण करते हुए नहामुनी वसिष्ठ ने कहा है -
जो आनंद सिन्धु सुख राशी
सीकर तें त्रैलोक सुपासी
अलौकिक सुख की प्राप्ति के लिए हमें सत्संग की वृत्ति अपनानी होगी. आत्मचिंतन करना होगा, परमात्मा के उन अनंत उपकारों के प्रति कृतज्ञता का भाव रखना होगा, जो उसने हमें प्रदान किये है. स्मरण रहे अलौकिक सुख का आंड मानवजीवन में ही संभव है. निरंतर सत्संग एवं आत्मचिंतन प्राप्ति का संयोग बनाए. अपने जीवं इन उपायों की अवधारणा करते ही धीरे सांसारिक आसक्ति से विरक्ति हो जायगे. अंतःकरण आनंद का अजस्र निर्झर झरने लगेगा और अलौकिक सुख की अनुभूति होने लगेगी.

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